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लाइव बिहार
रांची / डेस्क : मोदी सरकार एक देश एक चुनाव विधेयक वित्तीय कामकाज के बाद संसद में पेश करेगी। इस विधेयक से पहले सोमवार को संविधान (129 वां संशोधन ) विधेयक और संघ राज्यक्षेत्र (विधि संशोधन ) विधेयक लोकसभा में पेश होगा।
बसपा सुप्रीमो मायावती से किया समर्थन –
एक देश एक चुनाव को बसपा सुप्रीमो मायावती ने समर्थन करते हुए कहा कि इससे चुनाव में होने वाले खर्चों में कमी आएगी और जन समुदाय के मुद्दों पर कार्य करने हेतु ज्यादा समय मिलेगा। मायावती ने अन्य राजनीतिक दलों से एक देश एक चुनाव विधेयक को समर्थन करने का आग्रह भी किया है।
एक देश, एक चुनाव अनूठा प्रयोग नहीं है –
हालांकि ‘एक देश –एक चुनाव ‘ कोई अनूठा एवं अनोखा प्रयोग नहीं है, बल्कि हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा स्थापित लोकतंत्र के आधार पर 1952 से 1967 तक चली आदर्श चुनाव व्यवस्था को पुनर्जीवित करना है । यह क्रम तब टूटा जब 1968 -69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गयी । सन 1971 में लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे । जब इस प्रकार से चुनाव पहले भी हो चुके हैं तो अब एक साथ चुनाव करवाने में अड़चन किस बात की है ।
एक साथ चुनाव करना नामुमकिन नहीं है –
देश में यह भ्रम भी फैलाया जाता रहा है कि देश में एक साथ चुनाव कराने से करोड़ों रुपए का अतिरिक्त बोझ देश की अर्थव्यवस्था पर बढ़ जाएगी ,यह संघीय ढांचे के विपरीत है या क्षेत्रीय दल अथवा स्थानीय स्तर की पार्टियां एवं निर्दलीय उम्मीदवार जीत पाने में असमर्थ हो जाएंगे , या स्थानिये मुद्दे गायब हो जाएंगे, इस तरह के दलील वोटर की समझ पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है क्योंकि वोटर इतना तो समझ रखता ही है कि उसे राज्य में किसे मुख्यमंत्री चुनना है ऑर देश का नेतृत्व किसे सौंपा जाय ।ऑर कुछ विश्लेषक यह भी मानते हैं कि अब देश की जनसंख्या बहुत बढ़ चुकी है, लिहाजा एक साथ चुनाव करा पाना संभव नहीं हो सकता है परंतु जनसंख्या वृद्धि के साथ –साथ देश तकनीकी एवं अन्य संसाधनों से भी समृद्ध हुआ है । देश में तकनीकी संसाधनों का उपयोग करते हुए ई –निर्वाचन जैसी व्यवस्था की भी कल्पना की जा सकती है जिसमें चुनाव के समय मोबाइल एप के जरिए अपने निर्वाचन क्षेत्र में अपनी पसंद का उम्मीदवार चुन सकते हैं बजाय मतदान केन्द्रों पर जाए । प्रधौगिकी के क्षेत्र में भारत दिन –प्रतिदिन बेहतर होता जा रहा है ऐसे में तकनीकी की वजह से एक साथ चुनाव कराने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए । जब एक देश –एक टैक्स लागू किया जा सकता है , तो एक देश –एक चुनाव भी संभव है ।हाँ एक साथ चुनाव से यह जरूर हो जाएगा कि बाजार के बिचौलिये की तरह राजनीतिक बिचौलिये को भी चुनावी धंधे में आर्थिक नुकसानका सामना करना पड़ सकता है ।
खर्चों पर नियंत्रण –
एक देश एक चुनाव होने से बार –बार चुनावों में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी, क्योंकि बार –बार चुनाव होते रहने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है । भारत के प्रतिष्ठित शोध संस्थान सेंटर ऑर मीडिया स्टडीज़ की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में करीब साठ हजार करोड़ रुपए खर्च हुए थे ,यह जानने की आवश्यकता है कि लोकसभा के पहले तीन चुनावों में यानी 1952 ,1957 ऑर 1962 में केवल दस करोड़ रुपए खर्च हुए थे । हालांकि उस समय ऑर वर्तमान की समय में बहुत अंतर है ,फिर भी खर्चों में बहुत अंतर है । निश्चित ही ऐसी परिस्थितियों में ‘एक देश –एक चुनाव’ का विचार अच्छा प्रतीत होता है । किसी मुद्दे को यह कहकर खारिज कर देना कि यह व्यवहारिक नहीं है बिना चर्चा में लाए यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है । विशेषज्ञों की कमी नहीं है हमारे देश में ,बस एक बार एक देश ,एक चुनाव का मुद्दा विमर्श में आ जाए , तब जाकर इसके लाभ –हानि ऑर कठिनाइयों को रेखांकित किया जा सकेगा । जनहित के कार्यों के लिए समय भरपूर होगा – देश में लोकसभा चुनाव समान्यतः पाँच साल में ही कराये जाते हैं ,विशेष परिस्थिति को छोड़कर ,लेकिन राज्यों की विधानसभाओं में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से दशकों से चुनावी वर्ष अलग –अलग होने लगे ,ऑर इसका परिणाम यह हुआ कि हर तीसरे –चौथे महीने में किसी न किसी विधानसभा ,स्थानीयनगर निगमों ,नगर पालिकाओं ,ग्राम पंचायतों में चुनाव होते रहते हैं । इस तरह पूरा साल देश में चुनाव का माहौल बना रहता है, चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी मोड में ही रहता है ,इससे न केवल प्रशासनिक ऑर नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि जिस राज्य में होने वाले चुनावों के पहले आचारसंहिता लगने से विकास में खर्च होने वाली रकम स्थगित हो जाती है । सरकारी कर्मचारीयों ऑर सुरक्षा बलों को बार –बार चुनावी ड्यूटीपर लगाने से वह अपने कर्तव्य एवं दायित्वों का निर्वहन करने में असमर्थ हो जाते हैं जिससे उनका कार्य प्रभावित होता है । ऐसे में राजनीतिक लाभ भले ही किसी राजनीतिक दल का हो लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान आम नागरिकों को ही भुगतना पड़ता है।