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रांची/ डेस्क : गाँव के हर घर में दलान हुआ करता था, जिसे बैठका भी कहा जाता था। गाँव में दलान से ही यह अंदाज लगाया जाता था कि व्यक्ति कितना समाज में प्रभावशाली ऑर सुखी सम्पन्न है। दलान पर सामाजिक राजनीतिक, गाँव की खेती –बाड़ी ,मुकदमे की बात होते रहती। दलान पर हित ,मित्र ,पड़ोसी की महफिल सजी रहती, जिससे दालान की रौनक बनी रहती थी। हंसी –ठठाके की गूंज के साथ घर के भीतर से चाय –नाश्ता के साथ घर का मुखिया महफिल जमाए रहता ऑर खूब बतकही होती रहती। यूं कहें तो लोगों से जुडने का एक तरीका भी हुआ करता था दालान। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में दालान बनाने की व्यवस्था समाप्त होते जा रही है ,अब दो या तीन कमरों का फ्लैट जिसमें कीचेन ,वाशरूम जुड़ा होता है।
निजता से जुड़ा होता था दालान –
बाहर से कोई व्यक्ति आता है उसे घर के अंदर ही लाना पड़ता है।परंतु जब दालान की व्यवस्था होती थी तो बाहर से कोई भी व्यक्ति आने पर दालान पर बैठता।आज निजी ज़िंदगी के बारे में लोग सजग खूब होते हैं लेकिन बाहरी व्यक्ति को सीधे घर के अंदर लाना निजता में दखल देना है। शायद अब जरूरत से ज्यादा लोग निजी होते जा रहे, उन्हें यह मालूम है कि ज्यादा बाहरी व्यक्ती से संपर्क ही नहीं है जिससे उसे अपने घर में बुलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है ,हो सकता कि इसी विचार के कारण आज दालान बनाने की जरूरत नहीं हो रही है।
शहर में जमीन कम होने के कारण दालान नहीं बनाने की व्यवस्था तो समझ में आती है ऑर शहरों सार्वजनिक व सामाजिक दायरा भी सीमित होता है जिसके वजह से वही व्यक्ति घर में आते हैं ,जो ज्यादा उक्त व्यक्ति से संपर्क में होता है लेकिन आज गाँव में भी दालान बनाने का चलन समाप्त होते जा रहा है। शहर के घरों के तर्ज पर गाँव में घर बनाए जा रहे हैं। खैर शहर में दालान जैसे व्यवस्था तो है ही नहीं है ,आज जो बच्चे गांव के माहौल के बारे में जानते नहीं हैं वे दालान के बारे में बिलकुल अनभिज्ञ हैं।
समृद्धि का प्रतीक दालान –
पहले गांव में दालान की व्यवस्था इस बात का संकेत करता था कि लोगों का सार्वजनिक ऑर सामाजिक सरोकार कैसा है ? गाँव में जिसका दालान पर ज्यादा आदमी बैठता था ,तो उस दालान ऑर उस घर के मुखिया का समाज में इज्जत समझा जाता था। एक दूसरे से मिलना ऑर सुख –दुख में शामिल होना भी दालान पर ही होता है। पर्व –त्योहार में पुरुष दालान पर जाकर एक दूसरे को बधाई ऑर होली में रंगों के साथ रंगोत्सव मनाते थे।
नकारात्मक ऊर्जा से बचाता है दालान –
दालान की व्यवस्था एक अच्छी व्यवस्था थी इसके फायदे भी खूब थे क्योंकि बाहरी आगंतुक के आने पर सीधे घर में प्रवेश करना घर के लिए हितकर नहीं होता है क्योंकि बाहर से आया व्यक्ति रास्ते में विभिन्न प्रकार के नकारात्मक ऊर्जा से प्रभावित होता है ऑर ऐसे में सीधे घर में प्रवेश से बीमारियों का होने का खतरा ज्यादा होता है। अगर बाहरी व्यक्ति दालान पर हाथ –पैर धोकर या स्नान कर ,फिर घर में प्रवेश करे तो घर के लिए अच्छा होता है। क्योंकि घर के अंदर बच्चे भी होते हैं ऑर बच्चे बाहरी ऊर्जा से जल्द प्रभावित हो जाते हैं ऑर बीमार पड़ जाते हैं। शायद यही कारण रहा होगा कि हमारे पूर्वज घर के बाहर दालान की व्यवस्था को बनाए रखते थे किन्तु आज हमने आधुनिकता के नाम पर पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त करते जा रहे हैं। अगर इन पुरानी व्यवस्थाओं पर गौर किया जाए तो पाएंगे कि ये व्यवस्थाएं ऑर परम्पराएँ वैज्ञानिक थी लेकिन आज जितना पढ़ा –लिखा समाज होता जा रहा ,उतना ही समाज संकुचित होते जा रहा है। निंजी जीवन के हवाला देकर हमने घर के नाम पर एक ऐसी कबूतरखाना ईजाद किया है जो वाकई किसी पंछी का घोषला से ज्यादा नहीं है। फ्लैट के नाम पर सिर्फ आपसी मेलजोल ऑर सामाजिकता को नष्ट कर दिया है।
खैर अब दालान की व्यवस्था को पुनर्जीवित करना मुश्किल है क्योंकि सीमित जमीन ऑर सीमित सोच के दायरे को बढ़ाना कठिन है लेकिन एक बात तो तय है कि आने वाले दिनों में इसी सीमित दायरा ही लोगों का जीवन को नर्क बना देगा। शायद इसी दर्द के कारण दालान की याद आ गई।